Tuesday 8 November 2016

सम्पूर्ण जीवन हिन्दू थे भगवान बुद्ध



हमारे अनेक बुद्धिजीवी एक भ्रांति के शिकार हैं, जो समझते हैं कि गौतम बुद्ध के साथ भारत में कोई नया धर्मआरंभ हुआ। तथा यह पूर्ववर्ती हिन्दू धर्म के विरुद्ध विद्रोहथा। यह पूरी तरह कपोल-कल्पना है कि बुद्ध ने जाति-भेदों को तोड़ डाला, और किसी समता-मूलक दर्शन या समाज की स्थापना की। कुछ वामपंथी लेखकों ने तो बुद्ध को मानो कार्ल मार्क्स का पूर्व-रूप जैसा दिखाने का यत्न किया है। मानो वर्ग-विहीन समाज बनाने का विचार बुद्ध से ही शुरू हुआ देखा जा सकता है, आदि।

लेकिन यदि गौतम बुद्ध के जीवन, विचार और कार्यों पर संपूर्ण दृष्टि डालें, तो उन के जीवन में एक भी प्रसंग नहीं कि उन्होंने वंश और जाति-व्यवहार की अवहेलना करने को कहा हो। उलटे, जब उन के मित्रों या अनुयायों के बीच दुविधा के प्रसंग आए, तो बुद्ध ने स्पष्ट रूप से पहले से चली आ रही रीतियों का सम्मान करने को कहा।

एक बार जब गौतम बुद्ध के मित्र प्रसेनादी को पता चला कि उन की पत्नी पूरी शाक्य नहीं, बल्कि एक दासी से उत्पन्न शाक्य राजा की पुत्री है, तब उस ने उस का और उस से हुए अपने पुत्र का परित्याग कर दिया। किन्तु बुद्ध ने अपने मित्र को समझा कर उस का कदम वापस करवाया। तर्क यही दिया कि पंरपरा से संतान की जाति पिता से निर्धारित होती है, इसलिए शाक्य राजा की पुत्री शाक्य है। यदि बुद्ध को जाति-प्रथा से कोई विद्रोह करना होता, या नया मत चलाना होता, तो उपयुक्त होता कि वे सामाजिक, जातीय परंपराओं का तिरस्कार करने को कहते। बुद्ध ने ऐसा कुछ नहीं किया। कभी नहीं किया।

बुद्ध का यह व्यवहार सुसंगत था। तुलनात्मक धर्म के प्रसिद्ध ज्ञाता डॉ. कोएनराड एल्स्ट ने इस पर बड़ी मार्के की बात कही है कि जिसे संसार को आध्यात्मिक शिक्षा देनी हो, वह सामाजिक मामलों में कम से कम दखल देगा। कोई क्रांति करना, नया राजनीतिक-आर्थिक कार्यक्रम चलाना तो बड़ी दूर की बात रही! एल्स्ट के अनुसार, ‘यदि किसी आदमी के लिए अपनी ही मामूली कामनाएं संतुष्ट करना एक विकट काम होता है, तब किसी कल्पित समानतावादी समाज की अंतहीन इच्छाएं पूरी करने की ठानना कितना अंतहीन भटकाव होगा!

अतः यदि बुद्ध को अपना आध्यात्मिक संदेश देना था, तो यह तर्कपूर्ण था कि वे सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक व्यवस्थाओं में कम-से-कम हस्तक्षेप करते। उन की चिन्ता कोई ब्राह्मण-वाद के विरुद्ध विद्रोह’, राजनीतिक कार्यक्रम, आदि की थी ही नहीं, जो आज के मार्क्सवादी, नेहरूवादी या कुछ अंबेदकरवादी उन में देखते या भरते रहते हैं। इसीलिए स्वभावतः बुद्ध के चुने हुए शिष्यों में लगभग आधे लोग ब्राह्मण थे। उन्हीं के बीच से वे अधिकांश प्रखर दार्शनिक उभरे, जिन्होंने समय के साथ बौद्ध-दर्शन और ग्रंथों को महान-चिंतन और गहन तर्क-प्रणाली का पर्याय बना दिया।

यह भी एक तथ्य है कि भारत के महान विश्वविद्यालय बुद्ध से पहले की चीज हैं। तक्षशिला का प्रसिद्ध विश्वविद्यालय गौतम बुद्ध के पहले से था, जिस में बुद्ध के मित्र बंधुला और प्रसेनादी पढ़े थे। कुछ विद्वानों के अनुसार स्वयं सिद्धार्थ गौतम भी वहाँ पढ़े थे। अतः यह कहना उपयुक्त होगा कि बौद्धों ने उन्हीं संस्थाओं को और मजबूत किया जो उन्हें हिन्दू समाज द्वारा पहले से मिली थी। बाद में, बौद्ध विश्वविद्यालयों ने भी आर्यभट्ट जैसे अनेक गैर-बौद्ध वैज्ञानिकों को भी प्रशिक्षित किया। इसलिए, वस्तुतः चिंतन, शिक्षा और लोकाचार किसी में बुद्ध ने कोई ऐसी नई शुरुआत नहीं की थी जिसे पूर्ववर्ती ज्ञान, परंपरा या धर्म का प्रतिरोधी कहा जा सकता हो।

ध्यान दें, बुद्ध ने भविष्य में अपने जैसे किसी और ज्ञानी (मैत्रेय’, मित्रता-भाईचारा का पालक) के आगमन की भी भविष्यवाणी की थी, और यह भी कहा कि वह ब्राह्मण कुल में जन्म लेगा। यदि बुद्ध के लिए कुल, जाति और वंश महत्वहीन होते, तो वे ऐसा नहीं कह सकते थे। उन्होंने अपने मित्र प्रसेनादी को वही समझाया, जो सब से प्राचीन उपनिषद में सत्यकाम जाबालि के संबंध में तय किया गया था। कि यदि उस की माता दासी भी थी, तब भी परिस्थिति उस के पिता को ब्राह्मण कुल का ही कोई व्यक्ति दिखाती थी, अतः वह ब्राह्मण बालक था और इस प्रकार अपने गुरू द्वारा स्वीकार्य शिष्य हुआ। उसी पारंपरिक रीति का पालन करने की सलाह बुद्ध ने अपने मित्र को दी थी।

इसीलिए वास्तविक इतिहास यह है कि पूर्वी भारत में गंगा के मैदानों वाले बड़े शासकों, क्षत्रपों ने गौतम बुद्ध का सत्कार अपने बीच के विशिष्ट व्यक्ति के रूप में किया था। क्योंकि बुद्ध वही थे भी। उन्हीं शासकों ने बुद्ध के अनुयायियों, भिक्षुओं के लिए बड़े-बड़े मठ, विहार बनवाए।

जब बुद्ध का देहावसान हुआ, तब आठ नगरों के शासकों और बड़े लोगों ने उन की अस्थि-भस्मी पर सफल दावा किया थाः हम क्षत्रिय हैं, बुद्ध क्षत्रिय थे, इसलिए उन के भस्म पर हमारा अधिकार है।बुद्ध के देहांत के लगभग आधी शती बाद तक बुद्ध के शिष्य सार्वजनिक रूप से अपने जातीय नियमों का पालन निस्संकोच करते मिलते हैं। यह सहज था, क्योंकि बुद्ध ने उन से अपने जातीय संबंध तोड़ने की बात कभी नहीं कही। जैसे, अपनी बेटियों को विवाह में किसी और जाति के व्यक्ति को देना, आदि।

अतः ऐतिहासिक तथ्य यह है कि हिन्दू समाज से अलग कोई अ-हिन्दू बौद्ध समाज भारत में कभी नहीं रहा। अधिकांश हिन्दू विविध देवी-देवताओं की उपासना करते रहे हैं। उसी में कभी किसी को जोड़ते, हटाते भी रहे हैं। जैसे, आज किसी-किसी हिन्दू के घर में रामकृष्ण, श्रीअरविन्द या डॉ. अंबेदकर भी उसी पंक्ति में मिल जाएंगे जहाँ शिव-पार्वती या राम, दुर्गा, आदि विराजमान रहते हैं। गौतम बुद्ध, संत कबीर या गुरू नानक के उपासक उसी प्रकार के थे। वे अलग से कोई बौद्ध या सिख लोग नहीं थे।

पुराने बौद्ध विहारों, मठों, मंदिरों को भी देखें तो उन में वैदिक प्रतीकों और वास्तु-शास्त्र की बहुतायत मिलेगी। वे पुराने हिन्दू नमूनों का ही अनुकरण करते रहे हैं। बौद्ध मंत्रों में, भारत से बाहर भी, वैदिक मंत्रों की अनुकृति मिलती है। जब बुद्ध धर्म भारत से बाहर फैला, जैसे चीन, जापान, स्याम, आदि देशों में, तो यहाँ से वैदिक देवता भी बाहर गए। उदाहरण के लिए, जापान के हरेक नगर में देवी सरस्वती का मंदिर है। सरस्वती को वहाँ ले जाने वाले धूर्त ब्राह्मणनहीं, बल्कि बौद्ध लोग थे!

अपने जीवन के अंत में बुद्ध ने जीवन के सात सिद्धांतों का उल्लेख किया था, जिन का पालन करने पर कोई समाज नष्ट नहीं होता। प्रसिद्ध इतिहासकार सीताराम गोयल ने अपने सुंदर उपन्यास सप्त-शील’ (1960) में उसी को वैशाली गणतंत्र की पृष्ठभूमि में अपना कथ्य बनाया है। इन सात सदगुणों में यह भी हैं अपने पर्व-त्योहार का आदर करना एवं मनाना, तीर्थ व अनुष्ठान्न करना, साधु-संतों का सत्कार करना। हमारे अनेक त्योहार वैदिक मूल के हैं। 

बुद्ध से समय भी पर्व-त्योहार अपने से पहले के ही थे। महाभारत में भी नदी किनारे तीर्थ करने के विवरण मिलते हैं। सरस्वती और गंगा के तटों पर बलराम और पांडव तीर्थ करने गए थे। अतः जहाँ तक सामाजिक और धार्मिक व्यवहारों की बात है, बुद्ध ने कभी पुराने व्यवहारों के विरुद्ध कुछ नहीं कहा। यदि कुछ कहा, तो उन का आदर और पालन करने के लिए ही। इस प्रकार, कोई विद्रोही या क्रांतिकारी होने से ठीक उलट, गौतम बुद्ध पूरी तरह परंपरावादी थे। उन्होंने चालू राजनीतिक या सामाजिक व्यवस्था को बनाए रखने की सलाह दी थी। वे आजीवन एक हिन्दू दार्शनिक रहे। डॉ. एल्स्ट के शब्दों में, ‘बुद्ध अपने पोर-पोर में हिन्दू थे।लेकिन ठीक इसी बात को नकारने के लिए बुद्ध धर्म की भ्रांत व्याख्या की जाती रही है। इसे परखना चाहिए।
स्रोत- दैनिक भारत (11/8/16)

आखिर फार्मा क्लिनिक मे जाकर फार्मासिस्ट से दवा परामर्श क्यो लेना चाहिये?



किसी भी बीमारी के इलाज मे प्रयोग की जाने वाली दवा पर फार्मासिस्ट से परामर्श वश्य लेना चाहिये क्योकि

1.      1. फार्मासिस्ट आपको दवा के साइड इफेक्ट को कम करने या समाप्त करने के लिये कुछ आवाश्यक परामर्श देते है जो कि अत्यंत आवाश्यक है आपकी सेहत को बेहतर बनाने के लिये

2.      2.  फार्मासिस्ट ही हमे दवा लेने का सही, सुरक्षित और सरल तरीका बाताते है मौखिक और लिखित रूप से

3.      3.  चिकित्सक द्वारा लिखी गयी दवा गलत होने पर फार्मासिस्ट ही आपको बता (सूचित) करता है जिससे गलती से चिकित्सक द्वारा गलत दवा लिखने की वजह से होने वाली डेथ को रोका जा सके और मरीज कि जांन बचाई जा सके

4.      4.  दवा लेने का सही समय और उनके बीच के समयांतराल के साथ ही दवा कि मात्रा की सही जानकारी आपको फार्मासिस्ट ही देते है जिससे दवा का प्रयोग सुरक्षित हो सके और ओवर डोज कि वजह से होने वाली परेशानी तथा डेथ को रोका जा सके

5.      5.  किस बीमारी मे कैसा परहेज करना है तथा मरीज को कैसा भोजन आदि देना है के साथ ही दिनचर्या मे क्या बदलाव करना है कि जानकारी अत्यंत आवश्यक होती है जो फार्मा क्लीनिक से आपको मिल जायेगी

6.      6.  कुछ दवा एक साथ लेने से कई प्रकार कि समस्या सुरू कर देती है जैसे एलर्जी, खुजली, चक्कर आना आदि अत: फार्मासिस्ट से इसे रोकने हेतु आवश्यक परामर्श भी ले
नोट- ज्यादातर फार्मा क्लीनिक मे नेबुलाइजर (सीने कि जकडन के लिये), ग्लुकोमीटर (ब्लड मे ग्लूकोज लेवल जांचने हेतु), ब्रीथोमीटर (सांस बीमारी पता लगाने हेतु), वजन मापने कि मशीन आदि उपलब्ध रहती है तथा ड्रेसिंग, इंजेक्शन सहित दुर्घटना एवं आपातकालीन प्रथमिक चिकित्सा कि सुविधा उपलब्ध रहती है अत: इनका पूरा लाभ ले

दशावतार एवं आधुनिक विज्ञान

मैं अभी जो बात कहने वाला हूं, वो आपको भले ही हैरानी में डाल सकती है. लेकिन ये हकीक़त है कि आधुनिक विज्ञान में डार्विन ने जिस विकासवाद के सिद्धांत की व्याख्या की है, हिंदू धर्म में इसकी व्याख्या आज से हजारों साल पहले हो चुकी है. दरअसल, पुराणों में भगवान विष्णु के दशावतार में मानव जीवन का विकास और मानव सभ्यता के विकास की असाधारण झलक के तौर पर दिखाया गया है, जैसा आधुनिक विज्ञान में भी देखने को मिला है. दशावतार की कहानी माइथोलॉजी से अधिक विकासवादी सिद्धांत से संबंधित है. अगर गौर से इन दोनों पर विचार-विमर्श करेंगे, तो आपको भी ऐसा प्रतीत होगा कि विकासवादी सिद्धांत और दशावतार दोनों आपस में कितने अधिक मिले-जुले हैं.
तो चलिए जानते हैं कि हिंदू धर्म के दशावतार और आधुनिक विज्ञान या डार्विन के सिद्धांत, कैसे दोनों हैं एक-दूसरे के समरूप.
1. मत्स्य अवतार- जल से जीवन की उत्पत्ति अर्थात जल में जीवन की शुरूआत.

आधुनिक विज्ञान- डार्विन के सिद्धांत के मुताबिक, जीवन की शुरूआत सागर अर्थात जल से हुई है. डार्विन का मानना था कि पानी जीवन को बचाये रखने के लिए सबसे ज़रूरी तत्व है और पानी के बिना जीवन संभव नहीं है.

हिंदू धर्म- ठीक इसी तरह, अगर हिंदू धर्म में दशावतार की बात करें, तो विष्णु का पहला अवतार मत्स्य अवतार था यानि कि मछली. अगर विज्ञान के अनुसार, जीवन की शुरूआत का आधार पानी है. इस लिहाज से विष्णु का पहला अवतार भी तो मछली के रूप में पानी में ही हुआ था.
2. कच्छ अवतार- जल से थल की ओर

आधुनिक विज्ञान- विकासवाद के सिद्धांत के मुताबिक, इस चरण में जीवन जल से थल की ओर प्रस्थान करता है. जीवन, विकास के क्रम में पानी से बाहर निकल कर उभयचर बनता है. यही जीवन के विकास का दूसरा चरण है.

हिंदू धर्म- विष्णु के दूसरे अवतार को कछुआ के अवतार के रूप में जाना जाता है. हम सभी जानते हैं कि कछुआ जल और थल दोनों में रहने के लिए अनुकूल होता है और यह मतस्य अवतार के बाद वाला अवतार है. इससे साफ जाहिर होता है कि वैज्ञानिक विचार और धार्मिक विचार एक-दूसरे के कितने समान हैं.
3. वराह अवतार- पूर्ण जीव अर्थात भूमि पर रहने के लिए अनुकूल

आधुनिक विज्ञान- जल-थल में रहते-रहते जीवन भूमि के लिए भी अनुकूल हो गया. विकास के क्रम में प्रजनन क्रिया के लिए धरती उनके लिए अनुकूल हो गई.

हिंदू धर्म- जीवन के विकास में अगला पड़ाव था पैरों का क्योंकि बिना पैरों के धरती पर लंबी दूरी तय करना आसान नहीं था. इसलिए इस प्रजाति को पूर्ण करने के लिए पैरों का विकास शुरू हुआ. वराह अवतार विष्णु का तीसरा अवतार था और उन्हें धरती से महासागर की यात्रा करने के लिए पैरों की ज़रूरत पड़ी थी.
4. नरसिंह अवतार-  जानवर से अर्ध मानव में बदलाव

आधुनिक विज्ञान- इस चरण में जीवन जानवर से मनुष्य की ओर परिवर्तित होता है. आंशिक रूप से मानव का विकास होता है, जिसमें वह पैरों पर चलना सीखता है, शारीरिक विकास तो होता है किन्तु मानसिक विकास नहीं हो पाता है. अगर आदि मानव को देखा जाए तो नीचे के हिस्सों को मानव की तरह और ऊपर के हिस्से को जानवर की तरह देखा जा सकता है. जानवर मनुष्य के रूप में विकसित होने पर ऐसे ही दिखते हैं.

हिंदू धर्म- नरसिम्हा अवतार को आधा मानव और आधा जानवर का अवतार माना जाता है और यह जानवर से मनुष्य में परिवर्तन के संकेत के तौर पर है. इस अवतार में भी देखा जा सकता है कि शरीर भले ही मानव का हो गया है लेकिन दिमाग अथवा मस्तिष्क अभी भी जानवरों वाला ही है. इस चरण में मानव का आधा विकास हो जाता है. विकास के क्रम में होमो सेपियंस की अवधारणा अगली कड़ी थी, जिसे विकासवाद के सिद्धांत में मील का पत्थर माना जाता है. इस चरण में जानवर मानव के रूप में दो पैरों पर चलना सीखता है. विष्णु का यह अवतार भक्त प्रहलाद को हिरण्यकश्यप से बचाने के उद्देश्य से हुआ था.
5. वामन अवतार- बंदर से मानव में परिवर्तन और बुद्धि का विकास

आधुनिक विज्ञान- डार्विन के सिद्धांत के मुताबिक, मानव का शुरूआती आकार बौना ही था. इस चरण में मानव, जानवर से अधिक मानव की तरह प्रतीत होता है, लेकिन आकार में काफ़ी बौना होता है.

हिंदू धर्म- भगवान विष्णु का यह पांचवा अवतार मनुष्य के बेहद करीब है लेकिन काफ़ी कम ही मनुष्य का प्रतिनिधित्व करता है. यह अवतार मनुष्य के रूप में बुद्धि के विकास का भी शुरूआती संकेत है.
6. परशुराम अवतार- मानव ने पत्थर के औजारों का विकास किया.

आधुनिक विज्ञान- इस चरण में मानव पहले की अपेक्षा काफ़ी लंबा था और अब वह औजार का इस्तेमाल भी करना जान गया था. इस चरण में जैविक विकास पूर्ण हो जाता है और इंसानी दिमाग बिना किसी कारण के भी कार्य करने लगता है. विकासवाद के सिद्धांत के मुताबिक, गुफाओं में रहने वाले आदिमानव भी अपनी रक्षा के लिए औजारों का इस्तेमाल किया करते थे.

हिंदू धर्म- भगवान विष्णु के छठे अवतार को 'परशुरामावतार' अर्थात वनवासी के नाम से जाना जाता है. भगवान परशुराम गुफाओं में रहते थे और पत्थर व लकड़ियों से बने औजारों का इस्तेमाल किया करते थे. उस वक्त इनका हथियार कुल्हाड़ी थी. आमतौर पर परशुराम को एक क्रोधी और क्षत्रिय संहारक ब्राह्मण के रूप में जाना जाता है.
7. रामावतार- मानव ने तीर-धनुष और हथियार के साथ गांवों का निर्माण करना सीखा

आधुनिक विज्ञान- इस चरण में मानव का सही तरह से विकास हुआ और मनुष्य ने एक-दूसरे का सम्मान करना शुरू कर दिया. 'उत्तरजीविता की योग्यता' सच में यहीं से शुरू होती है. सच में मानव का अस्तित्व यहीं से शुरू होता है.

हिंदू धर्म- हिंदूओं के बीच भगवान विष्णु के सातवें अवतार को राम अवतार के रूप में जाना जाता है और देवता के रूप में मंदिरों में उनकी पूजा की जाती है. यहां मनुष्य के तौर पर राम सभ्य हुए और तीर-धनुष से लेकर कई औजारों को विकसित किया. उन्होंने छोटे-छोटे समुदाय और गांवों का विकास किया. इस चरण में वे गांवों और ग्रामीणों की रक्षा करते हैं.
8. बलराम अवतार- पूर्ण खेती की शुरूआत

आधुनिक विज्ञान- इस चरण में मानव ने बीज बोना शुरू किया था. साथ ही ग्रामीण इलाकों को कवर करने के लिए खाद्य-पदार्थों का उत्पादन और पौधे लगाना शुरू कर दिया. प्रारंभ में सबसे सफल फसलों में से जौ, गेहूं, चावल आदि थे.

हिंदू धर्म- भगवान विष्णु के आठवें अवतार को बलराम अवतार माना जाता है. भगवान बलराम को पुराणों में हल के साथ दिखाया गया है. इससे साबित होता है कि उन्होंने अपने हल से खेती की शुरूआत की. जो मानव पहले मांस और जंगली कंद-मूल पर निर्भर था, माना जाता है कि यहीं से मनुष्य सभ्य हुआ और मानव सभ्यता ने कृषि का विकास किया.
9. कृष्णावतार- आज की दुनिया के लिए सभ्यताओं और संस्कृतियों का विकास

आधुनिक विज्ञान- मानव जाति ने औजारों और हथियारों का उपयोग करने के लिए सीखना जारी रखा. सभ्यताओं का गठन किया, युद्ध लड़े गये, साम्राज्य बने और आज यही दुनिया के रूप में अस्तित्व में है, जिसे हम देख रहे हैं. यहां की मुख्य विशेषता जीवन और समाज की बढ़ती जटिलता है. इसी चरण में इंसानों की चेतना का विकास हुआ. मानव ने संगीत और नृत्य आदि से प्यार करना शुरू कर दिया.

हिंदू धर्म- भगवान विष्णु के 9वें अवतार को कृष्णावतार के रूप में जाना जाता है और राम की तरह ही मंदिरों में इनकी भी पूजा की जाती है. यह अवतार स्पष्ट रूप से उन्नत मानव सभ्यता का प्रतिनिधित्व करता है. द्वारका शहर आज के शहरों की प्रतिमूर्ति है, जिसकी पुष्टि खुदाई में मिले अवशेषों से भी हुई है कि किस तरह से इस नगर को बसाया गया था.
10. कल्कि आवतार- दुनिया का अंत

आधुनिक विज्ञान- बिग बैंग सिद्धांत और अन्य आधुनिक सिद्धांतों के मुताबिक, ब्रह्मांड स्थिर नहीं है. दुनिया में जीवन का अंत ज़रूर होना चाहिए, ताकि जीवन की फिर से शुरूआत हो सके और यही वजह है कि दुनिया का अंत हर रूप में अनवरत जारी है.

हिंदू धर्म- पौराणिक कथाओं के अनुसार, भगवान विष्णु के 10वें अवतार को कल्कि अवतार के रूप में जाना जाता है. अभी तक यह अवतार नहीं हुआ है. लेकिन यह माना जाता है कि दुनिया में पाप की सीमा पार होने पर विश्व में दुष्टों का संहार करने के लिए भगवान विष्णु कल्कि अवतार में प्रकट होंगे. उसके बाद वे पूरी दुनिया को खत्म कर इस धरती पर फिर से जीवन का सृजन करेंगे.

भगवान विष्णु के अवतार को अलग-अलग तरीके से दर्शाया गया है. विभिन्न संस्करणों में अलग-अलग अवतार को दिखाया गया है. किसी सूची में बलराम को आठवां अवतार दिखाया गया है, तो किसी में कृष्ण को 9वां अवतार दिखाया गया है. वहीं दूसरी सूची की बात करें, तो कृष्ण अवतार को 8वां अवतार दिखाया गया है, तो बुद्ध अवतार को 9वां. हालांकि, आधुनिक दार्शनिकों और धर्म शास्त्रियों ने बलराम को हटाकर दशावतार में भगवान बुद्ध को जगह दी है.
source- gajabpost (11/8/16)